जन सामान्य की कला को लोक कला के नाम से जाना जाता है यह बिना किसी जटिल प्रक्रिया के निर्मित की जाती है अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो मानव द्वारा आसपास की उपलब्धि सामग्री का प्रयोगकर कर निर्मित किए जाने वाले चित्रों को भी लोककला की संज्ञा दी जाती है
लोककला कलाकार कहीं पर जाकर अध्ययन नहीं करता बल्कि अपनी परंपरा और पीढ़ियों से ही यह संरक्षित और हस्तांतरित होती रहती है
कलाओं की दृष्टि से छत्तीसगढ़ काफी समृद्ध राज्य रहा है यहां के आदिवासी समाज में कलाओं का अद्भुत संसार दिखाई पड़ता है जो हमें आज ही आकर्षित और आनंदित करता रहता है चाहे आदिवासी समाज हो या कोई अन्य सभी में लोक कलाएं अवश्य दिखाई देती हैं यह अपने परंपराओं और संस्कारों से पोषित होती रहती हैं
Lok kala अपने स्वरूप में विशेष तौर पर पर्व त्यौहार एवं किसी महत्वपूर्ण अवसर पर ही दिखाई पड़ती है यह अक्सर महिलाओं के द्वारा पोषित की जाती है कभी-कभी पुरुष बीच में शक्ति भाग लेते हैं राजस्थान छत्तीसगढ़ में लोक कराओ का स्वरूप निम्नलिखित स्वरूप में दिखाई पड़ता है
छत्तीसगढ़ में चित्रकला के अन्तर्गत आदिम मानव बनाये हुए रेखाचित्रों से लोकचित्रों के उद्भव व विकास की यात्रा का अविरल प्रवाह है।
छत्तीसगढ़ की चित्रकला मुख्य रूप से भित्तित्रिच व भूमि रेखांकन के माध्यम से दिखाई देती है।ग्रामीण क्षेत्रों में मिट्टी की दीवारों पर लोक चित्रकार विभिन्न प्रकार से रेखाचित्र बनाते हैं। छत्तीसगढ़ में इसे कई अलग-अलग नामों से जाना जाता है व पर्वो के आधार पर बनाया जाता है। जैसे बेतिया, बिहई चौक, डंडा चौक, चांदनी, संकरी, सार्थिया, कमलगट्टा, हांडा, चकरीखूट, पंडुम, गोलावरी, संखचूर, मखना-बानी, कांदापान, कुसियारी, मानिक, पिढ़हाई, पुरइन पान, समुंद लहर, लक्ष्मी पांव आदि।
1. डंडा चौक –
सामान्य पूजा पाठ या किसी खास प्रयोजन जैसे दशहरा की पूजा में इस चौक को बनाया जाता है। आटे से या कभी-कभी धान से भी इस चौक को पूरा किया जाता है। इसके ऊपर पीढ़ा रखकर पूजा प्रतिष्ठा की जाती है।
2. बिहई चौक -
विवाह के समय इस प्रकार के चौक को मायने के दिन पाँच दल वाला चौक कन्या तथा सात दल वाला चौक वर के घर बनाया जाता है। इसमें चावल आटे का उपयोग किया जाता है।
3. छट्ठी चौक-
शिशु जन्म के छठे दिन छट्ठी मनाई जाती है। इस दिन वर्तुलाकार चौक बनाकर इस पर होम–धूप दिया जाता है। शिशु के बढ़ने की प्रक्रिया को ध्यान में रखकर इसे बनाया जाता है।
4. गुरूवारिया चौक-
इस तरह के चौकों को अगहन गुरूवार का व्रत करते समय बनाया जाता है। इसके बीच में देवी लक्ष्मी के पांव का चित्र बनाये जाते हैं व चारो ओर स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है।
5. भित्ति चित्र –
जिन दिनों मानव गिरी - कंदराओं में रहा करता था तभी वह दीवारों को रंगने की कला को सीख गया था । रायगढ़ के पास स्थित कुबरा पहाड़ की गुफाओं की भित्ती शैली इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।
6. द्वार सज्जा
प्रदेश में परम्परा है कि घरों में दरवाजें के तीनों ओर एवं नीचे के देहरी को आकर्षक ढंग से सजाते हैं । घर की महिलायें जब त्यौहारों पर घर की लिपाई-पुताई करती हैं तब चौखट के चारों ओर की सजावट भी करती है। इनमें रंगों, चूना, नील, पीली मिट्टी का उपयोग किया जाता है।
7. कोठी सज्जा -
छत्तीसगढ़ में अन्न भंडार को कोठी या ढोली और बड़े आकार के भंडार को ढाबा कहा जाता है। ढोली या कोठी आकार में छोटी होती है और मिट्टी की बनी होती है। लोग इस पर भी अपने सौंदर्य बोध व कलात्मकता के भाव को आकार देते हुए कुछ न कुछ प्रतीक या घटना को मिथक के रूप में उकेर देते हैं।
8. आठे कन्हैया –
भादो मास के आठे (अष्टमी) को कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व छत्तीसगढ़ अंचल में काफी धूमधाम से मनाया जाता है। इसे यहां आठे कन्हैया कहा जाता है। इस अवसर पर श्रीकृष्ण से संबंधित विभिन्न घटनाओं का चित्रांकन किया जाता है।
9. हाथा –
हाथ से बनाये गये थापों को हाथा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में आमतौर पर दो अवसरों पर हाथा बनाया जाता है। एक तो नये घर बनाये जाने पर प्रतिष्ठा करते समय, दूसरा हाथा राउत जाति के महिलाओं द्वारा गोर्वधन पूजा के समय बनाया जाता है।
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