कलाकार सुधीर पटवर्धन
भारतीय कला जगत में कंपनी शैली के बाद कुछ ऐसे इनेगिने ही कलाकार हुए हैं जिन्होंने अपनी विषय वस्तु में सामान्य लोगों को जगह दी हो खासतौर पर निचले वर्ग के लोग जिन्हें अभी तक कोई जगह नहीं मिली थी कंपनी शैली में साधारण लोगों के चित्र अवश्य बनाए गए थे परंतु उनका इनके दुख दर्द से कोई लेना-देना नहीं था
1949 में पुणे जन्मे Sudheer patvardhan ने अपने चित्रों में जनसाधारण को जगह दी सुधीर पटवर्धन वामपंथी विचारधारा के आधुनिक कलाकार हैं जिनके विषय वस्तु जनसाधारण लोगों को आधुनिक कला के मंच पर खड़ा कर देना था उन्होंने एक जगह कहा था मेरा कलाकार होने का औचित्य इसी में है कि मैं साधारण लोगों का कलाकार रहूं हो सकता है यह कहने में ऐसा लगे कि मैं अपने आप को अत्यधिक सदाचारी बना रहा हूं परंतु कला के ऐसे लक्ष्य जो आसपास के असाधारण लोगों के जीवन और जरूरतों से सरोकार नहीं रखते मुझे नहीं पसंद आते
1972 ईस्वी में सुधीर पटनायक ने सशस्त्र बल मेडिकल कॉलेज पुणे से चिकित्सा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की पटवर्धन एक रेडियोलॉजिस्ट के रूप में प्रसिद्ध है सुधीर पटवर्धन को बचपन से ही कला का शौक था 1969 के आसपास उन्होंने बस और रेलवे स्टेशनों पर जाकर जनसाधारण के रेखा चित्र बनाने प्रारंभ कर दिए थे 1990 में अंजली मोंटेरो और केपी जयशंकर ने कवि सुर्वे और सुधीर पटवर्धन के मुंबई से रिश्ते को लेकर सांचा नाम की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई इस फिल्म के साक्षात्कार के दौरान पटवर्धन बताते हैं कि वह पुणे में पुणे से मुंबई 1973 में आए इसके पीछे उनका लक्ष्य कलाकार बनना था
अपने शुरुआती दौर में मुंबई के मजदूरों के इलाके में जाकर उनके रेखा चित्र बनाना इनके स्वभाव में आ गया था 1973 से 77 तक के उनके ऐसे ही श्रीम ऐसे ही चित्रों में screeming women, worker आज महत्वपूर्ण है सुधीर पटवर्धन मानते थे जब तक मैं उन लोगों का जीवन नहीं जानता था और ना ही मैंने उन जैसा जीवन बिताया था सुधीर आगे कहते हैं इस तरह से इन चित्रों में वह मजदूरों की स्थिति देखकर अपनी कुंठा और गुस्सा देख कर देख रहे थे
पटवर्धन के चित्रों की संरचना या बनावट एक खास तरह की नजर आती है तस्वीर में हर चीज अपनी जगह रखी हुई है कहीं भी किसी प्रकार की अव्यवस्था नजर नहीं आती बाद में कलाकार ने इच्छा जागृत हुई कि वह श्रमिक वर्ग से जुड़ी हुई मुंबई शहर की सभी चीजों को अपनी तस्वीर में ले आए इसके रहते सुधीर पटवर्धन के चित्रों का आकार बड़ा होने लगा उनमें व्यवस्थित व्यवस्था नजर आने लगी इसका 1981 में बना एक्सीडेंट ऑन पे डे चित्र महत्वपूर्ण उदाहरण है इस कलाकृति में एक अर्ध शहरी रेलवे प्लेटफार्म नजर आ रहा है जहां पर एक गाड़ी रुकी हुई है उसके सामने एक स्ट्रेचर पर घायल किसी एक व्यक्ति को उठाकर ले जाया जा रहा है हम केवल उसके पैर देख सकते हैं चेहरा नहीं प्लेटफार्म पर बैठे आते जाते लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं है दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की चिंता करने के लिए उनके पास ना ही समय है और ना ही कोई चाहता है अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में मशहूर है ऐसी ही व्यवस्था व्यवस्थित का एक और चित्र सेरिमनी भी है
सुधीर पटवर्धन भारतीय समकालीन कला के बहुत ही महत्वपूर्ण कलाकार हैं उनकी कला को लेकर गहरी समझ है जो सामाजिक यथार्थ को दर्शाती है उनके जीवन का लक्ष्य केवल कला और कला कृतियां ही रही हैं अब उन्होंने डॉक्टरी बंद कर दी है भारतीय समकालीन कला उन साधारण लोगों तक पहुंचे जिनकी इस कला के बारे में कोई उत्सुकता तो है लेकिन उन्हें यह काम देखने का मौका नहीं मिलता सुधीर पटवर्धन की यह मुहिम इस बात से साबित करती है कि हर प्रसिद्ध कलाकार को अपना काम छोड़कर सामाजिक क्षेत्र में कूदने की आवश्यकता नहीं है कला के रास्ते पर चलते हुए भी एक प्रसिद्ध कलाकार समाज से एक व्यापक और गहरा संबंध जोड़ सकता है
सुधीर पटवर्धन द्वारा निर्मित चित्र
ट्रेन 1980, पोखरण 1990, एक्सीडेंटल ऑन पे डे 1981, स्ट्रीट प्ले 1981, ईरानी रेस्तरां, वर्कर, स्क्रीमिंग ओमेन, नल्लाह, कंस्ट्रक्शन वर्कर वाशिंग हर फेस एक्रेलिक, राइट 1996
Note
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