कला और सौंदर्य
दृश्य कला-सौदर्यानुभूति
सौन्दर्य एक मानसिक अवधारण है क्योंकि वस्तुओं के रूप को विश्लेषण के द्वारा सुन्दर या कुरूप मानती है तर्क के द्वारा विभिन्न अनुभूतियों को स्पष्ट किया जाता है। बुद्धि और भावना में वही सम्बन्ध है, जो सत्य और सौन्दर्य में पाया जाता है। मानवता का प्रथम गुण विवेक और उसका तर्कपूर्ण प्रयोग है, जिससे यह सौन्दर्य को समझता है। जो वस्तु प्रिय होती है वह सुन्दर भी लगती है यहीं से कला प्रारम्भ होती है।
कला में तीन तत्व प्रमुख रूप से विद्यमान रहते हैं रूप, भोग एवं अभिव्यक्ति रूप आन्तरिक और बाहय दो प्रकार का होता है कला में चाहे रूप की प्रधानता होती है। कला का अन्तिम ध्येय सौन्दयनुिभूति है जिसे प्रत्येक श्रोता या दर्शक आनन्द की प्रप्ति के समय अनुभव करता है।
सौन्दयनुिभूति का तात्पर्य
सौन्दर्य के भाव को नष्ट करना ही पाप है और सौन्दर्य को बनाये रखना ही पुण्य है।
सौन्दर्य प्राप्ति के आवश्यक तत्व
1- सत्य की खोज।
2- कला कल्याणकारी हो।
3- कला सौन्दर्य है, जिसकी अनुभूति सौन्दर्य के ज्ञान पर आधारित है।
दृश्य कला-सौदर्यानुभूति
सौन्दर्यशास्त्र
ऐस्थेटिक शब्द युनानी भाषा से लिया गया है। हिन्दी भाषा में इसे सौन्दर्यशास्त्र या नन्दनशास्त' के रूप में जाना जाता है। सौन्दर्यशास्त्र दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें कला की प्रकृति आस्वाद सौन्दर्य, सृजन तथा सौन्दर्य प्रशांसा का विचार किया जाता है। पाश्चात्य साहित्य में एस्थेटिक शब्द प्रथम बार 1750 ई० में दार्शनिक एलेक्जेन्डर बामगार्डन द्वारा अपनी पुस्तक एस्थेटिका के प्रथम अनुस्छेद में एन्द्रिय संवेदनाओं का विज्ञान कहकर परिभाषित किय है।
भारतीय दार्शनिकों ने भौतिक सौन्दर्य पर दर्शनिक विवेचन नहीं किये भारत में धार्मिक व सौन्दर्यात्मक अनुभूति एक ही रही है। भारतीय दृष्टि में सौन्दर्य सार्वभौम है। जिसकी अनुभूति आलौकिक होती है।
जब दर्शक किसी द्रश्य को देखता है तो उसके मस्तिष्क में रस की निष्पत्ति होती है और दर्शक को आनन्द की प्राप्ति होती है भारतीय दर्शन में सौन्दर्य शास्त्र को स्पष्ट करते हुए भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में आनन्द और रस की पूर्ण व्याख्या की है।
ललित कलाओं में काव्य व नाट्य कला को उत्कृष्ट कला के रूप में स्वीकार किय जाता है। भारतीय परम्परा में विभिन्न कलाओं की समस्याओं व अवधारणाओं का अध्ययन संगीत, चित्रकला स्थापत्य कला मूर्तिकला के सन्दर्भ में प्रथक न करके नाट्य कला के प्रसंग में किया गया। भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में कला सम्बंधी विचार व्यक्त किये ये सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
रस शब्द भारतीय साहित्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्राचीन शब्द की रस सिद्धान्त के प्रवर्तक आचार्य भरत मुनि माने जाते हैं। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र' पूर्वाचार्यों की रस-विषयक उपलब्धियों को अपने में संजोये हुए हैं। रस के वर्णो का विवेचन करते हुए भरतमुनि न कहा था कि अंगार का श्याम, हास्य का श्वेत करूण का कपोत, रोद का रक्त वीर का गौर भयानक का काला वीभत्य का नील एवं अद्भुत का पीला रंग होता है।
- 1- श्रंगार रति
- 2 हास्य हास
- 3- करुण शोक
- 4- वीर उत्साह
- 5- रोद्र क्रोध
- 6- भयानक भय
- 7- वीभत्स जुगुप्सा
- 8- अदभुत विस्मय
नोट
इन आठ स्थायी भावों के आधार पर ही आठ रास माने जाते हैं परवर्ती आचायो मे नयाँ स्थायी भाव निर्वेद माना तथा उससे सम्बन्धित नवे शान्त रस की स्थापना की।
कला और संस्कृति के निर्माण में प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान तक सौन्दर्य द्रष्टि का योगदान सदैव रहा है। देश और काल से उभरते सौन्दर्यदर्शन कला रसास्वादन के आधार रहे हैं, कला जिज्ञासुओं और समीक्षकों के लिए उनका अध्ययन दिशा निर्देशक रहा है। जहाँ पश्चात्य दर्शन सौन्दर्य कि व्याख्या पर अधिक बल देता रहा वही भारतीय दर्शन रस की मीमांसा को महत्त्वपूर्ण मानता रहा है।
भारत में धार्मिक और सौन्दर्यात्मक अनुभूति एक ही है। ध्यान मग्न योगी
को अपने तप में जो दिव्य अनुभूति होती है परमानन्द कहा गया है.
मात्र इन्द्रियों को आकृष्ट करने वाले लावण्य को नहीं।
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