रामनाथ पसरीचा जल रंगों का जादूगर
नंदा देवी_रामनाथ पसरीचा-जलरंग |
भारत वर्ष में ऐसे विरले कलाकार ही हैं जिन्होंने प्रकृति की विशाल विषमता में व्याप्त सौंदर्य को देखा है रामनाथ पसरिचा जी ने पहाड़ी दृश्यों को चित्रपट पर साकार रूप में उतारा है जल रंगों का अनुपम प्रयोग इनकी शैली की प्रमुख विशेषता है अभी तक जल माध्यम को विशेष महत्त्व नहीं मिला था समकालीन कला समीक्षक एम एस रंधावा ने भी इस पद्धति का काफी विरोध किया था
रामनाथ पसरीचा का रेखाचित्र |
कला को समय के साथ कैसे संबंध स्थापित करना चाहिए इस पर विचार करते हुए पसरीचा नहीं लिखा है
कला को तो समय में तब्दीली लानी चाहिए समय के साथ चलने वाली कला को आप देख ही रहे हैं इसका अर्थ है ऐसी कला की ओर झुकाव जो खरीदार की इच्छा के मुताबिक चले मेरा कार्य एक समय से बंध कर नहीं चलता या दर्शक के मन में अपनी तरह का स्वाद पैदा करता है
कला और तकनीक के संबंध में पसरीचा का मत है तकनीक तो गहन है इसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता इसके बावजूद तकनीक सिर्फ तकनीक है कला नहीं साहित्य रचना के लिए व्याकरण की जरूरत नहीं होती पर साहित्य रचना के लिए व्याकरण की सूझ और उसे बरते जाने की समझ लाज़िमी है साहित्य रचते समय व्याकरण छिन्न-भिन्न हो जाता है पाठक साहित्य पाठ करते समय जज्बा सुख दुःख को ही महसूस करता है भाषा के दोनों में उनकी दिलचस्पी नहीं होती
अपनी रचना के सामाजिक पक्ष पर राय देते हुए कहां है जब कलाकार पेंट करता है तब उसकी समझ का कोई प्रयोजन नहीं होता वह कोई प्रचारक या मनोरंजन करने वाला भी नहीं है वह तो स्वयं को व्यक्त करता है इस अभिव्यक्ति से समाज आनंद ले सकता है अगर संभव हो तो कोई नया अर्थ भी लगा सकता है
बूंदेर पंच- रामनाथ पसरीचा |
इनके विषय में पहाड़ी जनसमूह की भिन्नता भी दिखाई देती है यहां का एक कबीला दूसरे से बिल्कुल भिन्न है इनके रीति-रिवाज परंपराएं मान्यताएं एवं धार्मिक श्रद्धा बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत है यहां के लोगों का जीवन सरल भौतिकवाद से रहित है अध्यात्म ने इन्हें और अधिक शालीन बनाया है
एक साक्षात्कार में इन्होंने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखा कई बार सूर्य स्वयं सामने खड़ा होकर दर्शक की भांति मिलता है एक समय वह सुर्ख लाल का गोला हो जाता है आकार में प्राया बड़ा होता है पहाड़ी के पीछे से प्रकाश पुंज के समान दिखाई पड़ता है कुछ समय पश्चात वह अपनी रंगत बदलता रहता है जिसका प्रभाव दृश्यों पर विशेष रूप से पड़ता है तैलंग से निर्मित चित्र अधिकतर फोटोग्राफ से निर्मित किए गए हैं
पसरीचा ने अपने जीवन के अंतिम समय तक कला साधना जारी रखीं उन्होंने बदलते भू दृश्य ही नहीं देखें बल्कि लोगों के बदलते स्वरूपों को भी देखा उन्होंने कभी भी अपने मार्ग को किसी के कहने पर परिवर्तित नहीं किया सच्चे मन से समर्पित होकर हृदय की आवाज को सुना और उसी को ईमानदारी के साथ सदैव चित्र पटल पर उतारा जनवरी 2002 में इनका निधन हो गया कला का यह सूर्य अनंत आकाश में खो गया पर पसरीचा जी के किए गए कार्य चित्रकला जगत के लिए अमूल्य निधि हैं जो सदैव उनमें व्याप्त होकर हम सबके सम्मुख उपस्थित होते रहेंगे
Kala k vidhyathiyo ki liye sahi
जवाब देंहटाएंGood work
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