संस्थापन कला
संस्थापन कला अभिव्यक्ति की एक नई विधा है जो कलाकार को अपने कार्य को करने की और अधिक स्वतंत्रता प्रदान करती है इसमें कलाकृति और दर्शक दोनों का पृथक अस्तित्व ना होकर एक पूर्ण कृति का दोनों को मिलाकर निर्माण होता है इसके विपरीत चित्र और मूर्तियों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है जबकि संस्थापन कला दर्शक के आने पर अपनी सक्रिय अवस्था में आती है यहां पर यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या संस्थापन कला स्वयं कभी सक्रिय नहीं होती बल्कि निष्क्रिय अवस्था में रहती है लेकिन ऐसा सोचना भी गलत होगा संस्थापन कला और मूर्तिकला तथा चित्रकला में एक आधारभूत अंतर है अंतिम दोनों को दर्शक आलोकित कर सकता है पर उसका वह स्वयं हिस्सा नहीं बन पाता है इससे मेरा आशय कृति का स्वयं को अंग मान लेना है कला दीर्घा में जाकर चित्र मूर्तियों को देखने का आनंद तथा कृतियों में निहित संदर्भों और सौंदर्य का रसपान किया जा सकता है पर चित्र या मूर्ति में दर्शक को कोई स्थान नहीं मिलता क्योंकि यह दोनों माध्यम दर्शकों के लिए स्थान नहीं छोड़ते इसीलिए मैं कह रहा हूं यह दोनों माध्यम स्वयं में पूर्ण या सक्रिय रहते हैं तथा इन दोनों को छूकर या देखकर ही महसूस किया जा सकता है इनके स्पेस में जाकर इनका अंग बनाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है
अब मैं संस्थापन कला के इतिहास पर बात करूंगा आज यह विधा हमारे सम्मुख अपने नवीन कलेवर के रूप में उपलब्ध है पर जो हम संस्थापन कला का आज स्वरूप देख रहे हैं वह हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के अवसर पर निर्मित होने वाली विविध प्रकार की आकृतियों का ही विकसित स्वरूप है शादी विवाह के अवसरों पर बनाए जाने वाले मंडप होली के अवसर पर होलिका की स्थापना नवरात्र में दुर्गा की मूर्तियां पंडालों की साज-सज्जा राम नवमी के अवसर रावण के पुतलों का निर्माण मंचन सांझी कला मुहर्रम पर ताजियों का उत्सव आदि कुछ इसी कला के उदाहरण हैं परंतु तत्कालीन समय में इनका आयोजन सामूहिक भावनाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता था परंतु आज संस्थापन कला या इस नवीन विधा के द्वारा व्यक्तिगत भावनाओं एवं विचारों को प्रकट रूप देने का माध्यम बनी हुई है
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में यूरोप में कला का स्वरूप लगातार बदलता जा रहा था और अभिव्यक्ति के नए-नए माध्यम खोजे जा रहे थे इन्हीं माध्यमों के सामंजस्य से एक नवीन कला प्रकाश में आई जो संस्थापन कला या प्रतिष्ठान कला के नाम से जानी गई इस माध्यम में चित्र मूर्ति फोटोग्राफी थिएटर प्रिंट मेकिंग प्रदर्शन आदि सभी कलाओं का मिलाजुला स्वरूप दिखाई पड़ता है जहां पर अभिव्यक्ति की अपार संभावनाएं हैं एवं इसका क्षेत्र भी काफी व्यापक है इस विधा में वैचारिक कला अर्थ कला तथा मिनिमल कला का उचित मेल रहता है इस कला का निर्माण मुख्य रूप से अनुपयोगी पदार्थों से किया जाता है
Prayash acha h
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