अपभ्रंश शैली


   अपभ्रंश शैली
apbhransh Shaili

अपभ्रंश शैली

            8 वीं शताब्दी से लेकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के पूर्व 16वीं शताब्दी तक की चित्रकला मध्यकालीन चित्रकला के नाम से जानी जाती है किंतु मध्यकाल को दो भागों में विभाजित करने के बाद उत्तर मध्यकालीन चित्र शैली के नामकरण को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है कुछ विद्वान जैन शैली गुजराती शैली पुस्तक शैली पश्चिमी भारती शैली एवं सुलिपी शैली आदि नामों से पुकारा है

           क्योंकि मध्यकाल में प्राप्त प्रारंभिक तथा अधिकांश चित्र जैन धर्म से संबंधित थे अतः इस कारण से कुछ विद्वानों ने इसे जैन शैली का नाम दिया किंतु गुजरात के विभिन्न केंद्रों से मिले अधिकांश चित्र हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों तथा तत्कालीन साहित्य ग्रंथों से संबंधित हैं अतः मध्य काल में विकसित कला शैली को श्री एन सी मेहता ने गुजरात शैली कहा किंतु कुछ समय पश्चात गुजरात के अतिरिक्त मालवा राजस्थान के अनेक केंद्रों से भी इस शैली के चित्र प्राप्त हुए अतः इसे डॉ आनंद कुमार स्वामी ने पश्चिमी भारतीय शैली वाला का नाम दिया किंतु वास्तव में पश्चिमी भारत के अतिरिक्त जौनपुर मालवा उड़ीसा बंगाल तथा बिहार से भी इन्हीं विशेषताओं वाले चित्र मिलते हैं अतः यह नाम भी उचित प्रतीत नहीं होता है

      भारतीय साहित्य में यह काल लोक भाषाओं की रचना का काल माना जाता है इस काल में स्थानीय लोग भाषाओं में अधिकांशत वीरगाथा काव्य की रचना हुई अतः साहित्य के  दृष्टिकोण से इससे वीरगाथा काल चारण काल या अपभ्रंश काल कहा जाता है क्योंकि चित्रकला में भी इसी समय अजंता जैसी महान शैली का विकृत रूप देखा जा सकता है अतः श्री राय कृष्ण दास ने इस कला शैली को अपभ्रंश चित्र शैली का नाम दिया जो तर्कसंगत प्रतीत होता है अधिकांश विद्वान इसी नाम से इस शैली को जानते हैं

      इस काल में बढ़ते आक्रमण तथा युद्ध के कारण धार्मिक स्थलों के भित्ति चित्र के नष्ट होने का भय बना रहता था अतः विभिन्न धर्म लांबिया धर्मावलंबियों ने अपने साहित्य तथा चित्रों को सुरक्षित रखने के लिए ताल पत्रों व पटों  का सहारा लिया 14वीं शताब्दी इसवी में कागज का ज्ञान होने पर ताल पत्रों का स्थान कागज निर्णय ले लिया इन्हीं ग्रंथों में हमें मध्यकालीन चित्रकला के दर्शन होते हैं

अपभ्रंश शैली

     11 वीं सदी के आसपास से मध्यकालीन चित्र विशेषताओं वाले अनेक चित्रित पोथियां विभिन्न स्थलों पर चित्रित होने लगी जिन का विषय व स्थान के आधार पर निम्नलिखित उप शैलियों में अध्ययन किया जा सकता है

गुजरात शैली या गुर्जर शैली

    वर्तमान गुजरात क्षेत्र से मिले इस शैली के अधिकांश क्षेत्रों का विषय हिंदू पौराणिक ग्रंथों से संबंधित है गुजरात में 11 वीं सदी से लेकर 16 वीं सदी तक के पोथीचित्र तथा लघु चित्र इसी प्रकार के हैं इस शैली के अधिकांश अहमदाबाद बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित हैं 

गुजरात शैली की विशेषताएं  

इस शैली में अजंता की तकनीक को  तालपत्र पर उतारा गया
भित्ति चित्रण परंपरा तथा राजस्थानी व मुगल शैली चित्र परंपरा में आए परिवर्तनों को जानने का एकमात्र स्रोत गुजरात शैली को माना जाता है
परवर्ती राजस्थानी शैली में चित्रित प्रकृति जैसे पवन नदी समुद्र वनस्पति तथा बादलों का चित्रण गुजरात शैली के आधार पर किया गया मुंबई में स्थापित प्रगतिशील कलाकार ग्रुप में चित्रों का आधार इसी शैली को बनाया है
मुगल कला में उत्पन्न नवीन विशेषताओं का कारण भी गुजराती शैली को माना जाता है क्योंकि गुजराती शैली के केशव माधव तथा भी को मुगल चित्र शैली के प्रमुख कलाकारों में से थे

गुजरात शैली के चित्रण विषय 

   हिंदू धार्मिक ग्रंथ रामायण महाभारत दुर्गा सप्तशती पुराण तथा कृष्ण लीलाओं से संबंधित साहित्य ग्रंथों में गीतगोविंद ऋतुसंहार वसंत विलास चौरपंचासिका आदि 

नोट

    कालिदास के ऋतुसंहार पर आधारित 79 चित्र प्राप्त हुए हैं 
चन्नालाल चमनलाल मेहता ने 1924 ईस्वी में वसंत विलास नाम की चित्रित पोथी के आधार पर गुजराती शैली वाला नाम दिया

जैन शैली

     जैन चित्रकला का प्रारंभ सितनवसल की गुफाओं से माना जाता है किंतु जैन धर्म से संबंधित अधिकांश चित्र हम मध्यकाल में पोथी चित्रों में पाते हैं तथा मध्यकालीन चित्रण की विशेषताएं सबसे उन्नत रूप में जैन त पोथियों में दिखाई देती हैं अतः जैन चित्र शैली मध्य काल की प्रमुख शैली मानी जाती है भारतीय चित्रकला के इतिहास में मध्यकालीन कला को जीवित रखने हेतु जैन शैली का प्रमुख योगदान है जैन चित्रों के प्रमुख केंद्र माउंट आबू राजस्थान गिरनार गुजरात थे इसके अतिरिक्त जौनपुर मांडू तथा उड़ीसा से भी चित्रित पोथियां प्राप्त हुई हैं
 

जैन शैली की विशेषताएं

   जैन पोथी चित्रों में अन्य मध्यकालीन चित्रों की अपेक्षा गिरावट आई जैन शैली का प्रारंभ श्वेतांबर विचारधारा द्वारा हुआ अधिकार चित्रित पोथियां भी इसी शाखा के साहित्य से संबंधित हैं चित्रों में रंग लाल पीला तथा इसकी मिश्रित रंगते अधिक प्रयोग में लाई गई हैं साथ ही में नीले व काले रंग का प्रयोग भी किया गया है पृष्ठभूमि गहरी लाल है 14शताब्दी से स्वर्ण रजत रंगों के प्रयोग का प्रचलन बढ़ा अब पीले रंग के स्थान पर सोने को पीसकर तैयार किए जाने वाले रंगों को प्रयुक्त किया जाने लगा सभी मानव आकृतियां सवाचश्म मुद्रा में बनाई गई है 
11 वीं शताब्दी में उड़ीसा में चित्रित निशीथचूर्णी जैनों की सबसे प्राचीन चित्रित पोथी मानी जाती है
  

जैन शैली के प्रमुख ग्रंथ

  कल्पसूत्र कल्काचार्यकथा सिद्धिहेमव्याकरण नेमिनाथचरित्र बालगोपाल स्तुति भगवतीसूत्र उत्तराध्यानसूत्र संग्रहणीसूत्र 

         जैन ग्रंथ कल्पसूत्र की अनेक स्थानों पर अनेक प्रतियां चित्रित हुई किंतु 1467 असली में जौनपुर में चित्रित कल्पसूत्र वाली प्रति सबसे प्रमुख मानी जाती है कल सूट पर आधारित कालका चार्य कथा सभी जैन तीर्थंकरों के चित्र अंकित है अन्य एजेंसियों में वीर सेन की धवल महादेवन किटी काय 10 वी का लिक लघु वृति भूतिया प्रमुख है बड़ौदा के जैन ग्रंथ भंडार में 16 देवियों तथा 26 जनों के चित्र सहित हैं जिनका चित्रण जैन शैली के अनुसार हुआ है जैन शैली के सर्वाधिक चित्र अखियां पाटन संग्रहालय अहमदाबाद खंभा संग्रहालय गुजरात में संग्रहित है इसके अतिरिक्त बोस्टन संग्रहालय अमेरिका एवं देश विदेश केेे संग्रहालय में संग्रहित हैं 

अपभ्रंश शैली की प्रमुख विशेषताएं

    राजराजेश्वर नामक विद्वान ने अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा में इस शैली के चित्रों की निम्नलिखित विशेषताएं बतलाइ हैं
1 रिक्त स्थानों से निकली हुई पड़ परवल के आकार की आंखें 2 स्त्रियों की आंखों से कनपटी तक खींची गई रेखा 
3 नुकीली नासिका 
4 दोहरी चुनक
5 मुड़े हुए हाथ एवं ऐठी हुई अंगुलियां 
6 आप्राकृतिक रूप से उभरी हुई छाती 
7 लकड़ी के खिलौने के समान पशु पक्षी
8 प्राकृतिक दृश्यों की कमी 
9 कमजोर रेखांकन 
10 अंतराल में एक साथ कई दृश्यों का अंकन
11 चटक तथा स्वर्ण रंगों व स्याही काअधिकाधिक प्रयोग 
12 - 15वीं सदी से हासियों के अंकरण की परम्परा का विकास 

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